नीम नींद में नींद उचटी हुई है और सुनिए, उचटी हुई नींद में सपने नहीं उपजते,
सपनों के भ्रम उपजते हैं और इस सच से तो हम सब वाकिफ ही हैं कि भ्रम सपने नहीं
होते और यह भी आप जानते ही होंगे कि सपनों का बंजर भयावह होता है।
इस समय मैं उस बंजर में खोई हुई उन सपनों को तलाश रही हूँ, जिन्हें मैंने बहुत
पहले अपने लिए अपनी नींद में बोया था। यह सोचकर कि जब भी मुझे उनकी सबसे
ज्यादा जरूरत महसूस होगी, नींद में मैं उन्हें बुला लूँगी।
बात कुछ अजीब जरूर है लेकिन बहुत दिनों से मुझे यह महसूस हो रहा है कि बिना
बुलाए मेरी आखों में कुछ जोंकों ने आकर डेरा डाल लिया है और लग यह रहा है कि
सपने उन जोंकों से डरकर जन्मने से कतराने लगे हैं। उनके मन में भय समा गया है
कि वे जनम कर क्या करेंगे। उनके जन्मते ही आँखों में डेरा जगाए बैठी जोंकें उन
पर चील-सी झपट पड़ेंगी और उन्हें उदरस्थ कर यथा स्थान ऐसे दुबक लेंगी कि जैसे
उन्हें नींद और सपनों से कुछ लेना-देना ही नहीं है।
यकीन कीजिए, जबसे मुझे यह जानकारी हुई है, मैंने मन ही मन संकल्प किया है कि
मुझे जोंकों के हमलों से अपने सपनों को बचाना है। बचाना ही नहीं है बल्कि उनकी
नस्ल को ही खत्म कर देना है और अपने इस प्रयास में किसी हद तक मैं सफल भी हुई
हूँ लेकिन जाने मेरे वजूद का कौन-सा प्रकोष्ठ चेतन-अवचेतन में मेरी खिलाफत पर
आमादा इस मौके की तलाश में ही जुटा रहता है कि कब मैं उसकी गुरिल्ला पहल से
बेखबर होऊँ और वह अपने मकसद में सफल हो मौका पाते ही जोंकों का भ्रूण धारण कर
जोंकें उगलने लगे।
अचानक मेरे सिरहाने पड़ोसी पटरियाँ कानों को बहरा कर देने की हद तक धड़धड़ाने लगी
हैं। कोई मेल ट्रेन उनके ऊपर से गुजर रही है उनके अनचाहे। मेरी आँख खुल गई हैं
या शायद आँखों को लगा होगा कि वह नींद के बहाने कब तक पलकों को भींचे हुए सोने
का बहाना ओढ़े पड़ी रहें।
नींद से बाहर आने के बाद मुझे महसूस हुआ कि मेरी समूची देह पसीने से भीगी हुई
है। उतरते पूस माह के दिन हैं, जिसकी लंबी रातें रजाइयों में भी ठिठुरन नहीं
छोड़ पातीं। सोते समय यही लगा था कि टू टियर के डिब्बे में वातानुकूलन के
बावजूद ठंड कुछ अधिक ही पैठी हुई है। मात्र एक कंबल में रात कैसे कटेगी? साथ
चलने वाले बिजली विशेषज्ञ से पहले ही शिकायत कर देना मुनासिब होगा कि डिब्बे
का तापमान वह कुछ बढ़ा दे।
हो सकता है उसने डिब्बे का तापमान बढ़ा दिया हो?
"दीदी, दीदी, वोऽऽ जिस छोरी पुष्पा के ठियाँ आप मुझे भेजा करती थीं न सामान
पहुँचाने, त्रिलोकपुरी - "
चौबीस घंटे घर में रहनेवाली विधवा कुलसुम के घर का दरवाजा खोलते ही बदहवास-सी
घर में दाखिल हो वेदवती मेरे सामने आ खड़ी हुई थी।
"पप, पुष्पा के ऊपर - "
"क्या हुआ पुष्पा को?"
स्टेशन निकलने की हड़बड़ाहट असमय वेदवती को अपने सामने पाकर तनिक रूखी हो आई।
दोपहर का काम निबटाकर घर से निकले हुए उसे अभी यही कोई घंटाभर ही हुआ होगा।
उसे यह भी मालूम है कि मुझे कुछ ही देर बाद स्टेशन के लिए रवाना होना है।
"बोलो वेदवती।" मेरे रूखेपन ने शायद उसे संकोच में डाल दिया था।
"मुँह पर उसके किसी अनजान छोकरे ने तेजाब फेंक दिया है। छोरी को कल्याणपुरी के
लालबहादुर शास्त्री हस्पताल ले गए। देहरी भी न लाँघी थी मैंने, छोरी की माँ आई
छाती कूटती दरवज्जे। बोली, मेहरबानी कर वेदवती मेरे ऊपर फिलाट में दीदीजी को
जाके खबर कर दे उनको, पुष्पा उनकी रट लगाए हुए है।"
खबर ने सिहरा दिया। ये कैसी खबर दे रही वेदवती? भला पुष्पा जैसी मासूम किशोरी
की किसी से क्या दुश्मनी हो सकती है?
"उसी की माँ थी न!"
"कोई दस-बारह दफे तो हो आई हूँ मैं आपके भेजे उसके घर।"
कलाई पलट घड़ी पर निगाह डाली मैंने। बुक की गई रेडियो टैक्सी का समय हो रहा है।
अकुलाई वेदवती की आँखें मुझ पर टिकी हुई हैं। वेदवती ने यह भी बताया। पुलिस
में रपट लिखा दी है पुष्पा के बाप ने। लिख ना रहे थे। आपका नाम लेते ही कुछ
ठंडे पड़े। बाप के पूछने पर सौ बात का एक ही जवाब दे रही पुष्पा। तेजाब फेंक
भागने वाले लड़के के मुँह पर नजर न पड़ी उसकी।
खट्, खट्, खट्, दस्तकें टकरा रही हैं दिमाग में। किसके लिए कपाट खुले! अस्पताल
है कल्याणपुरी में। पुष्पा को देखने जाने का मतलब होगा पंद्रह मिनट के लगभग
जाना और वहाँ से नई दिल्ली स्टेशन पहुँचना घंटे भर से कम समय न लेगा। राजधानी
छूट भी सकती है। गाड़ी छूटने का मतलब होगा डेढ़ माह पूर्व निर्धारित कार्यक्रम
का सत्यानाश। कार्ड छपकर आ गया है। पर्स में रख लिया है। वार्षिक उत्सव की
अध्यक्षता करनी है बालिका विद्यापीठ लकी सराय में, बिहार के राज्यपाल महामहिम
श्री बी.के. सिंह के संग। मामूली अवसर है! उनसे कुछ महत्वपूर्ण बातें भी करनी
हैं। फिर बात दी गई जबान की है। उससे मुँह मोड़ना विश्वसनीयता दरकाएगा। सबसे
बड़ी बात है चार हजार के लगभग बालिकाओं को संबोधित करने का सुअवसर। भविष्य में
चार हजार मत। बूँद-बूँद जलाशय में परिवर्तित होती है। संसद के इस सत्र में
महिला आरक्षण बिल पास होने से रह गया मगर उम्मीदें टूटी नहीं हैं। भविष्य में
कौन जाने कौन-सी पार्टी प्रवेश द्वार साबित हो।
भुच्च-सी वेदवती मेरा मुँह ताके जा रही है।
कुलसुम हमेशा की भाँति घर से निकलने से पूर्व पी जाने वाली मेरी काली कॉफी
तैयार कर लाई है।
पहले ही घूँट के साथ घर का इंटरकाम बज उठा है। चौकीदार ने सूचना दी कि टैक्सी
आ गई है, उसे वह बिल्डिंग की सीढ़ियों के पास लगवा दे ताकि सामान रखवाने में
मुझे दिक्कत न हो। कुलसुम ने उसे हाँ कह दिया है।
पुष्पा भी तो उन्हीं लड़कियों में से एक है, जिन्हें संबोधित करने में लकी सराय
पहुँचना चाहती हूँ! लड़कियों के सशक्तीकरण के बिना क्या किसी विकासशील देश में
उन्नत और सुदृढ़ समाज की कल्पना संभव है।
''उसकी आँखें तो बच गई हैं न - ''
वेदवती मेरा आशय भाँप जवाब में कहती है, "सो मैं कैसे बता सकूँ दीदी जी।"
रेडियो टैक्सी को पंद्रह मिनट से ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करवाई जा सकती। पचास
रुपये शायद ऊपर से देने पड़ जाएँ। उसे घुमाकर भी नहीं ले जाया जा सकता। जहाँ से
जहाँ तक के लिए बुक कराई गई है, वहीं तक उसका उपयोग किया जा सकता है।
कैसे थोथे तर्क बुन रही हूँ मैं! पुष्पा की आँखों की गुहार को इधर-उधर ठेलकर।
पीड़ा से तड़पती-चीत्कार करती बच्ची, मरहम-सा तलाश रही है मुझे। जलने से बचे हुए
चेहरे के जाने किस हिस्से पर वह मेरी उँगलियों के स्पर्श की प्रतीक्षा में
होगी।
मेरी उँगलियाँ पर्स की जिप खोल लेती हैं।
"ये, रखो हजार का नोट वेदवती।"
मैं वेदवती की आँखों में उतरा आए कौतूहल पर विराम लगाते हुए कहती हूँ उससे,
''रखो इसे, नीचे से तिपहिया पकड़कर फौरन अस्पताल पहुँचो और पुष्पा की माँ को
नोट थमा के कह देना कि दीदी को किसी जरूरी काम से पटना की राजधानी पकड़नी है,
यात्रा टाली नहीं जा सकती। लौटते ही स्टेशन से सीधा पुष्पा के पास पहुँचूगी।''
कहकर मैं कुलसुम की ओर मुड़ी, "वेदवती को सौ रुपये छुट्टा दे दोय तिपहिया के
किराए के लिए।"
वेदवती को दरवाजे की ओर मुड़ता न देख मैं उसकी आँखों में ठिठके सवाल से टकराती
हूँ। सवाल में बर्छी की नोक उग आई है।
"अच्छा। रुको, शायद यह उचित न लगेगा। मत कहना कि तुम्हारी मुलाकात घर पर मुझ
से हो गई थी। कह देना कि तुम्हारे घर पहुँचने से कुछ पहले ही मैं घर से स्टेशन
के लिए निकल ली थी।"
"रुपये - "
"रुपयों के लिए कह देना कि जिस घर में तुम खाना पकाती हो, उनसे उधार माँगकर
लाई हो। संकट की इस घड़ी में पड़ोसन होने के नाते तुम्हारा भी तो कुछ कर्तव्य
बनता है। दीदी जी मिल जातीं, तब तो उधार की कोई बात ही न थी। लौटते ही दीदी जी
ये पैसे मुझे थोड़े ही भरने देंगी। पुष्पा पर तो वह जान छिड़कती हैं - "
लौटते ही आप सब सँभाल लेना दीदी जी।' संभ्रमता में डूबी हुई थी वेदवती की
आवाज।
लिफ्ट से सामान बाहर निकालती कुलसुम की ओर देखा मैंने, खामोशी जड़ी हुई है
वहाँ। पुष्पा को उसने भी देखा हुआ है। तेजाब से विकृत हुआ उसका मासूम चेहरा
विचलित किए हुए होगा उसे। विचलित मैं नहीं हूँ?
- यह उसी का काम होगा।
"आप दीदी जी कह रही हैं, सो बिस्वास किए ले रही हूँ मगर लच्छन छोरी के कुछ
न्यारे ही दिख रहे। स्कूल से पलटती है तो आईने के सामने ही टँगी रहती है।"
पुष्पा की माँ वीना के संशय पर मुझे ताला लगाना जरूरी लगा था, वरना वह पुष्पा
का स्कूल जाना बंद करवा सकती थी।
पानी की बोतल खाली खुँसी हुई है साइड टेबिल पर। पड़ोसी सवारी ने कहीं अपनी
समझकर तो नहीं खाली कर दी अँधेरे में?
याद आया। एक अतिरिक्त बोतल भी तो रात में खरीदकर रख ली थी कि सुबह मुझे पूरी
एक बोतल पानी पीने की आदत है। सुबह-सुबह कहाँ से मिलेगी। बर्थ के नीचे झुककर
एयर बैग खींचती हूँ।
गट्, गट्, गट्, कंठ से बेसुरी ध्वनि फूट रही है।
ये किसकी आँखें हैं नर्म नजरों से मुझे देखती हुईं! पुष्पा की छोटी आँखों की
बरौनियाँ कितनी गझिन हैं।
घड़ी देखती हूँ। रेडियम की चमक ने इत्तिला दी। पटना पहुँचने में अभी डेढ़ घंटा
शेष है। वैसे भी राजधानी ने अब तक अपने समय से पहुँचने और पहुँचाने की
प्रतिष्ठा पर आँच नहीं आने दी है।
डिब्बे में अधिकांश यात्री गहरी नींद में डूबे हुए हैं। खिंचती बाल्टी-सी
खिंचती गहरी साँसें।
पास खींचो तो सहमी गौरैया-सी ढुरकी हुई सीने से आ चिपकती है पुष्पा।
अचानक डिब्बे ने पटरियों पर झूलना शुरू कर दिया है। मेरा शरीर भी झूल रहा है।
कोई पुल आने वाला है शायद!
कौन सा दिन था वह, जब मैं आठ-दस लड़कियों की पाँत में आसमानी स्कर्ट के ऊपर हाथ
बाँधे और नजरें झुकाए खड़ी हुई पुष्पा से मिली थी?
करीने से पहनी हुई तांत की साड़ी-सी सधी हुई सर्वोदय बालिका विद्यालय की
प्राचार्या श्रीमती विद्या गर्ग ने कुर्सी से खड़े होते हुए चहक कर मेरा स्वागत
करते हुए कहा था, 'आइए, आइए अनुपमा दी। कल कई अखबारों के स्थानीय समाचार
पृष्ठों पर आपके किसी कार्यक्रम की तसवीरें देखीं। कितना काम करती हैं आप।'
'ऊँट के मुँह में जीरा समझिए। समस्याएँ अपार हैं और संस्था छोटी।' प्रशंसा ने
मुझे विनत किया
उनकी मेज से सटी खड़ी बच्चियों की ओर उन्मुख होते हुए मैंने उनसे परिचय की
उत्सुकता प्रकट की तो विद्या जी ने बताया कि आपके आग्रहानुसार इन तेरह
बच्चियों को अलग-अलग कक्षाओं से चुना गया है। कहने में गुरेज नहीं कि ये
बच्चियाँ गरीबी रेखा के नीचे आने वाले परिवारों की बच्चियाँ तो नहीं हैं मगर
मुश्किल यह है कि इनके घरवालों के लिए सरकारी स्कूल की नाम मात्र की फीस भी
इनकी पढ़ाई के एवज में खर्च करना पहाड़ ढोने-सा कठिन लगता है। इनकी प्राथमिक
जरूरतें क्या है, मैं स्वयं इनसे चर्चा करके देख लूँ। 'समन्वय' अगर उन्हें
पूरा करने की जिम्मेदारी उठा ले तो निश्चय ही इन बच्चियों की पढ़ाई बिना किसी
बाधा-व्यवधान के आगे जारी रह सकती है।
"सरकारी स्कूलों की सीमाओं से अनुपमा दी आप तो भली-भाँति परिचित हैं। इनमें से
कुछ बच्चियाँ अभावों के बावजूद अच्छा नतीजा ला रही हैं।"
'समन्वय' से जुड़ी साथ आई समीना ने संकेत पाते ही एक-एक बच्ची की जरूरतों को
बताए अनुसार नोट करना शुरू कर दिया। बच्चियों के चेहरों पर पौ फटने लगी।
झुग्गी बस्तियों के कुम्हलाए बच्चों के मुख पर जब भी रोशनी के वृत्तों को
थिरकते देखती हूँ मैं, मुझे वे दड़बों से मुक्त हुए किलबिल करते नन्हे चूजों से
फुदकते हुए महसूस होते हैं।
पुष्पा से मिलवाते हुए विद्या जी अतिरिक्त उत्साह से भर आईं। आठवीं कक्षा की
मेधावी छात्रा है पुष्पा। ऊँची पढ़ाई पढ़ने की इच्छुक। रद्दी खरीदने और बेचने
वालों के घर से आती है। अड़चनें कम नहीं हैं। घरवाले इसके हाथ पीला करने की
फिराक में हैं। उनका तर्क है, सरकार चाहती है लड़कियाँ पढ़ें, सो बहुत पढ़ ली
छोरी। भाँवरें सरकार डलवाने से रही। ऊपर से चार किलास पढ़कर अपने को वेदज्ञाता
समझ बैठी है। चौका-बासन कमाने को राजी नहीं। दफ्तर में काम करेगी। कुछ कहो तो
मुँह लड़ाती है करमजली।
"नाम कटने को है इसका। सातवाँ महीना है, फीस नहीं भर रहे घरवाले।" विद्याजी
निरुपाय-सी कहती हैं।
खड़े होकर मैंने पुष्पा को खींचकर छाती से भींच लिया। "दफ्तर में काम करना
चाहती हो।"
छाती से चिपके हुए उसने सिर को इतनी-सी जुंबिश दी।
"तुम जरूर किसी बड़े दफ्तर में काम करोगी। मन लगाकर पढ़ोगी तो मैं तुम्हें
पढ़ाऊँगी।" सिर थपका कर मैंने उसे आश्वस्त किया।
छाती से अलग करते हुए यह महसूस हुआ कि पुष्पा की देह से लगातार एक अजीब सी
दुर्गंध फूट रही है जो उसे छाती से लगाए रखने के दौरान मुझे निरंतर उचाट कर
रही थी।
विद्या जी से मैंने पुष्पा से एकांत में बातचीत करने की अनुमति माँगी तो
उन्होंने खेल का पीरियड होने के चलते एक खाली कक्षा में हमारे बैठने की
व्यवस्था करवा दी।
कक्षा में अब सिर्फ हम दो थे और थीं विद्यार्थियों के बस्ते सहेजे हुए खाली न
होकर भी उनके बिना खाली बेंचे।
बड़ी पुचकार के बाद पुष्पा की चुप्पी मुखर हुई।
उसने बताया। वह बिला नागा स्नान करके स्कूल आती है।
"तो यह दुर्गंध?"
"गंदे कपड़े की है - "
"गंदा कपड़ा माने?"
उसने बताया। उसे माहवारी शुरू हुए साल भर से ऊपर हो रहा है। माँ उसे इस्तेमाल
के लिए साफ-सुथरा कपड़ा मुहैया नहीं करवातीं, यहाँ तक कि भरे हुए कपड़े को धोने
के लिए उसके पास साबुन भी नहीं होता। साबुन माँगने पर माँ नहाने के लिए
इस्तेमाल होने वाले साबुनों के बचे हुए छोटे-मोटे टुकड़े थमा देती हैं, जिन्हें
निश्चय ही वह उन घरों से माँगकर लाती होंगी, जिन घरों में वह सेवा-टहल के लिए
जाती हैं। उन्हीं पिचपिचे टुकड़ों से उसे नहाना होता है और -
"तुम पढ़ रही हो, नहीं बताया माँ को कि गंदे कपड़े से तुम्हें योनि की कोई
खतरनाक बीमारी हो सकती है?"
माँ कहती हैं, 'उन्हें तो नहीं हुई। हमने तो पानी में धो-फींच कर ही लत्ते
इस्तेमाल किए हैं। तू कोई नई अनोखी जनानी जन्मी है।'
"और क्या कहती हैं?"
"कहती हैं, टीवी-रेडियो का तो तू नाम मती ले। उनकी चिल्ल-पों बड़े लोगों के लिए
है।"
"और - ?"
"कहती हैं - छोरियों को जिन लत्तों को पहनकर टीवी पर कूदते-फाँदते दिखाते हैं
न, वही देख-सुन तेरा दिमाग ठिकाने पर नहीं है।"
और - बोल, बोल?
बोलती हैं, बंद कर तू पड़ोस में उठना-बैठना और टीवी देखना। छोरियों की
तंदुरुस्ती की ऐसी ही चिंता है सरकार को तो कारड पर चावल-दाल के संग मुफत
लत्ते काहे नहीं बाँटती?
सुनकर पुष्पा से और कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हुई।
पीठ थपका उसे पुनः आश्वस्त किया। बकाया फीस आज ही भर दी जाएगी उसकी और वह
समीना को अपने घर का पता आदि नोट करवा दे। सेनेटरी नैपकिन्स आज या कल में
पहुँचा दी जाएँगी उसके घर।
अचानक दोनों हथेलियों में मुँह छिपा वह फूट-फूट कर रोने लगी।
"मेरी बच्ची!" कहकर मैंने उसे अपने सीने में समेट लिया। बड़ी मुश्किल से मासूम
के आँसू थमे।
"घर नहीं आएँगी आप!"
"एकाध रोज में आऊँगी तुम्हारी माँ से भेंट करने। किस वक्त घर पर मिलेंगी वे?"
"दोपहर चार के बाद।"
"पिता कब मिलते हैं?"
"घर लौटने का उनका कोई एक समय नहीं है।"
विद्या जी के पास लौटी तो मन में आया कि क्यों न संस्था की ओर से उसकी साल भर
की फीस भर दी जाए ताकि पुष्पा के मन में पढ़ाई को लेकर कोई द्वंद्व न रहे।
घर लौटकर यह भी तय किया किसी के हाथों पुष्पा के घर सेनेटरी नेपकिन्स भिजवाने
से बेहतर होगा स्वयं जाना। पढ़ाई को लेकर भी उसकी माँ से बात करनी जरूरी है।
साल भर की फीस भर देने मात्र से बेटी के हाथ पीले कर उसकी जिम्मेदारी से मुक्त
हो लेने वाली जोर मारती भावना से उसके माँ-बाप का मुक्त होना संभव नहीं।
समझाना होगा उन्हें। बेटी पढ़ना चाहती है तो उसे पढ़ाएँ। ब्याह-शादी का क्या है,
आगे चल कर हो ही जाएगी। समय बदल रहा है स्वावलंबी लड़की का हाथ माँगने वाले
अपनी ही बिरादरी में एक नहीं पचास मिल जाएँगे।
इसी बीच हुआ यों कि एक के बाद एक देश-विदेश में होने वाले महिला सम्मेलनों की
व्यस्तता ने मुझे कुछ ऐसा उलझाया कि पुष्पा के घर पहुँचने का निश्चय न चाहते
हुए भी अगले हफ्ते से अगले हफ्ते पर टलता गया। पश्चाताप ने यदाकदा सिर उठाकर
फटकारा भी कि क्यों नहीं बेहद जरूरत की चीज मैंने उसे पहले भिजवा दी, चार
पंक्तियों की चिट्ठियों के साथ। सुविधा होते ही उसकी माँ से मिलने चली जाती।
तीसरे महीने समय निकालकर मैं पहली फुरसत में चिल्ला गाँव स्थित उसके घर पहुँची
थी।
विस्मय हुआ यह देखकर कि पुष्पा की माँ वीना ने परिचय देते ही लहककर विनीत भाव
से मेरा स्वागत किया, "देखते ही पेचान गई थी मैं दीदीजी, आप ही हो। छोरी आपकी
भोत तारीफ करे है। बैठोजी। चाय करती हूँ।" सेनेटरी नैपकिंस के पैकेट्स पकड़ाने
पर वीना चकित होते हुए बोली, "भोत पैकेट तो आपने दीदी जी पहले ही भिजवा दिए थे
पुष्पी के हाथों! अब तो मैं भी वोई इस्तेमाल कर रही हूँ। घर देख रही हैं न!
छिपाकर रखने के लिए जगे भी होनी चाहिए न!"
मैं भौंचक्क। समीना ने भिजवा दिए थे क्या? मगर ऐसा करती तो वह मुझे सूचित
अवश्य करती। इस बीच तो वह मेरे वीजा, पासपोर्ट आदि के चक्करों में ही हलकान
होती रही है। हाँ, पुष्पा के विषय में एकाध बार बात भी हुई थी उससे तो उसने
यही सलाह दी थी कि "जिस माहौल में वह बच्ची रही है, बिना उसके घर जाए और
माँ-बाप से खुलकर बात किए बिना बात नहीं बनने वाली। मुख्य मुद्दा पढ़ाई का है।
उसकी पढ़ाई न बंद करवाएँ वे लोग।"
टूटे हत्थे की इकलौती कुर्सी पर बैठते हुए मैंने प्रश्न भरी नजरों से सकुचाई
सी पास आ खड़ी हुई पुष्पा की ओर देखा। नाजुक मसला है। बात सँभालनी जरूरी लगी।
जेब खर्च उसे घर से मिलता नहीं है, इसकी मुझे जानकारी उसी ने दी थी। घर की
हैसियत घर की दीवारों से झाँक रही थी और उसके बीच रहनेवालों के चेहरे भी चुगली
खा रहे थे।
माँ से पूछा - किस नाम से पुकारूँ उन्हें?
"वीना कह लो दीदीजी आप!"
"और बच्चे नहीं दिख रहे?"
इससे छोटे दोनों छोरे बाप के संग कबाड़ी साहू की दुकान पर माल बेचने गए हुए हैं
गुरुद्वारे के पीछे। बताया होगा छोरी ने। दोनों त्रिलोकपुरी के छोटे सरकारी
स्कूल में जाते हैं पढ़ने। पाँचवीं तक ही पढ़ाई होती है वहाँ।
वीना बोलती बहुत है, लगातार।
चाय छानती हुई चहकी। जबसे मैंने पुष्पा की पढ़ाई की जिम्मेवारी ली है, महीने की
परीक्षा में कक्षा में अव्वल आई है। दोनों छोरों की पढ़ाई पर भी ध्यान दे रही
है। सुधर रहे हैं बदमाश।
चाय पकड़ाते ही हाथ जोड़ दिए वीना ने - छोरों की पढ़ाई की जिम्मेवारी भी उठा लो
आप तो दीदी जी, भोत एहसान होगा हम पर। दो जून की रोटी भारी हो रही।
चाय अदरक डालकर मन से बनाई थी वीना ने। घूँट भरते हुए मैंने उसके जुड़े हुए
हाथों का स्पर्श किया, "आप पुष्पा को पढ़ाइए, पुष्पा दोनों भाइयों को पढ़ाएगी।
चिंता न करें।"
"चिंता घनी होती है, दीदी जी।"
कहने लगी, बस एक बात के लिए मैं छोरी को और समझा दूँ। टीवी देखने के लिए
बेलगाम भागती है पड़ोस में। टीवी देख-देख कर मरी नए-नए फैशन सीख रही है। बाल
खुले रखने लगी है। साँझ घिरे दूसरी छोरियों के संग जाने कहाँ सैर-सपाटे के लिए
निकल जाती है। रहते वह दिल्ली में जरूर हैं मगर शहर के बीच फँसा हुआ उनका
मोहल्ला है तो चिल्ला गाँव में। गाँव के रंग-ढंग ना बदले हैं।
"चलूँ!" चाय का कप मैंने वीना की ओर बढ़ाकर कहा। फिर पुष्पा की ओर इशारा किया,
''पुष्पा को साथ भेज दो, गली के मोड़ पर वह मुझे रिक्शा करवा देगी।'' वीना अपने
दोनों छोटे बेटों के जर्जर बस्ते उठा लाई थी। उसका आशय मैं भाँप रही थी लेकिन
मेरा दिमाग उलझा हुआ था उन सेनेटरी नैपकिन्स के पैकटों में। कहाँ से लाई होगी
पुष्पा वे सेनेटरी नैपकिंस? किसने दिए होंगे उसे। मोबाइल पर समीना से पूछ न
लूँ। तसल्ली हो जाएगी। वैसे पुष्पा के सामने समीना से इस विषय में बात करना
उचित न होगा। अँग्रेजी वह समझती होगी। सोचेगी कि मैं उस पर संदेह कर रही हूँ।
भरोसा डगमगाता है। साथ चल ही रही है। उसी से मामले का खुलासा कर लेना बेहतर
होगा। हो सकता है समीना ने ही भिजवाए हों। मेरे घर से निकलने से पूर्व ही वह
जरूरी काम निबटाकर अपने घर के लिए निकल ली थी। चलने के समय मैंने उससे सिर्फ
इतना भर कहा था - संभव है, शाम को मैं चिल्ला गाँव के लिए निकलूँ। किससे मिलने
जाऊँगी, यह नहीं बताया था, वरना वह जिक्र जरूर करती या मुझे याद दिलाने की
कोशिश करती कि मैं पुष्पा के लिए वादे के मुताबिक सेनेटरी नेपकिंस अवश्य लेती
जाऊँ।
पुष्पा की गली के मोड़ से पहले डी.डी.ए. का एक छोटा-सा उजाड़ गार्डन था और
गार्डन में बैठने के लिए सीमेंट की खस्ताहाल दो-तीन बेंच नजर आ रही थीं।
पुष्पा के घर की नजर से ओझल। क्यों न उसके साथ कुछ देर के लिए इत्मीनान से
वहीं बैठा जाए।
छतनार के पेड़ की छाया में एक सुविधाजनक बेंच पुष्पा ने चुन ली। जो बाहर से
नहीं दिख रही थी, उसने भीतर कदम बढ़ाते ही नाक पर कपड़ा रखने के लिए मजबूर कर
दिया।
सार्वजनिक शौचालय नगर निगम ने बनवाए हुए हैं मगर शायद वे बस्ती की जनसंख्या के
लिए पर्याप्त न होंगे।
बेंच के निकट पहुँचते ही पुष्पा सकुचाई रूमाल के अभाव में उसने हाथ से बेंच को
झाड़कर मेरे बैठने की जगह बनाई।
खुरदरी बेंच ने उसकी हथेलियों को छील न दिया हो, सोचकर मैंने अपनी साड़ी के
आँचल से उसकी छोटे हाथों वाली हथेलियों को मुलायमियत से झाड़ा। पास बैठी हुई वह
संकोच से कुछ और सिमट गई।
''तुम समझ गई होगी पुष्पा कि मैं तुम्हें यहाँ क्यों लेकर आई हूँ - ?''
फिर वही मुश्किल। चुप्पी आ दुबकी उसके होंठों पर।
"चलो, पहले मैं तुमसे माफी माँगती हूँ। कुछ ऐसी व्यस्तता आड़े आई कि तुमसे किया
हुआ वादा चाहकर भी मैं पूरा नहीं कर पाई।
देखो, सच तो तुम्हीं बता सकती हो। बच्ची हो मेरी प्यारी-सी। मुझसे कोई बात तुम
कैसे छिपा सकती हो?
तुमने माँ से झूठ क्यों बोला कि तुम्हें वे नेपकिंस के पैकेट मैंने भिजवाए थे?
शायद, इसलिए बोला होगा तुमने कि झूठ छिपाने में तुमसे किया गया मेरा वादा ही
तुम्हें बचा सकता था! मानती हूँ मगर सच तो बताने की हिम्मत करो न? माँ के
सामने भी मैं सच रख सकती थी पुष्पा। सोचो बच्ची, नहीं रखा तो क्यों? जानती थी
कि उसके परिणाम खतरनाक होंगे। यदि तुमने स्वयं खरीदे हैं तो तुम वह भी मुझे
बता सकती हो।'' मैंने उसका सिर अपने कंधे पर रखकर प्यार से थपथपाया।
टूटी टहनी सी वह मेरे कंधे पर ढह कर फफक पड़ी, संताप पिघलने लगा। उसका पिघलकर
बह जाना जरूरी था।
पुष्पा ने बताया।
बड़े दिनों तक उसने मेरी राह देखी। सुबह स्कूल में प्रार्थना के उपरांत एक रोज
उसने प्राचार्यजी से भी मेरे बारे में पूछा था। उन्होंने बताया कि उस रोज के
बाद मैं स्कूल में दोबारा नहीं आई हूँ। देश से बाहर गई हुई हूँ शायद।
इसी बीच त्रिलोकपुरी की एक दवाइयों की दुकान में डिलीवरी बाय के रूप में काम
कर रहे लड़के से उसकी दोस्ती हो गई। सतीश से उसका परिचय उसकी सहेली नजमा ने
करवाया जो उसकी गली छोड़ पीछे वाली गली में रहती है और मयूर विहार की सरकारी
डिस्पेंसरी में झाड़ू-पोंछे का काम करती है। तीनों साथ-साथ नोएडा के स्पाइस माल
में गोलमाल-3 फिल्म भी देखने गए। धीरे-धीरे नजमा उन दोनों के बीच से हटने लगी।
दोस्ती की प्रगाढ़ता इस हद तक बढ़ गई कि सतीश जब भी उसके साथ कहीं घूमने जाता,
उससे अपना कोई मनपसंद उपहार खरीदने की जिद करता। हर बार वह कोई न कोई बहाना
बनाकर उसके आग्रह को टाल देती। अपने जन्म दिन पर वह सतीश का आग्रह नहीं टाल
पाई। उसने नोएडा के एक डिपार्टमेंटल स्टोर से 'फेयर एण्ड लवली' खरीदा।
विज्ञापन में दिखने वाली साँवली लड़कियों की भाँति वह भी गोरा दिखना चाहती थी।
किसी अन्य चीज के खरीदने के सतीश के मनुहार भरे दबाव को वह टाल नहीं पाई। सतीश
ने उसे 'स्टेयफ्री' के तीन पैकेट खरीद दिए। घर पर वह कहकर गई थी कि वह मेरे घर
जा रही है -
बदले में सतीश उससे कुछ अनचाही छूटें लेने लगा था।
"माँ को उस पर शक है?"
"उनका आप पर बहुत भरोसा है। हाँ, माँ को मेरा बालों का खुला रखना नहीं भाता।
घर पर आने-जाने वालों को वह आपकी दरियादिली की तारीफ करते नहीं अघातीं। फीस की
सँजोई रसीद निकालकर दिखाती रहती हैं।"
"उस भरोसे को तुम तोड़ रही हो!"
सिसकियाँ फिर खिंचने लगी।
"मेरे भरोसे को भी पुष्पा।"
"नहीं मिलूँगी अब मैं उससे - "
उसकी ठुड्डी उठाकर गालों पर ढुलकते उसके आँसुओं को काँछा मैंने, "तुम बताओ
मुझे सतीश से मिलने और उससे बात करने की जरूरत है?" उसे टोहने की कोशिश की
मैंने।
"नहीं मिलूँगी उससे - " दृढ़ स्वर में पुनः दोहराया पुष्पा ने।
"चाहे जितना तुम्हें घेरने की कोशिश करे?"
"जीऽऽ"
"स्कूल अकेली आती-जाती हो?"
"पिछली गली से तीन लड़कियाँ जाती हैं, उन्हीं के संग निकलती हूँ, लौटती भी
हूँ।"
"देखो, तुमसे मैं बार-बार सिर्फ एक ही बात कहती हूँ, पढ़ो, पढ़ो। इधर-उधर की
लप्पाडुग्गी में कुछ नहीं धरा। तुम्हें जिस चीज की भी जरूरत है, मैं हूँ न!
झिझक छोड़ मुझसे निःसंकोच कहो।
और देखो, वार्षिक परीक्षा में यदि तुम पाँच के भीतर रैंक लेकर आओगी, हाथ घड़ी
तुम्हारी पक्की। तुम्हारी मनपसंद। ठीक।
अब मुस्कुराओ तनिक और वादा करो, ताकि मैं निश्चिंत हो लौटूँ, हूँ?"
सुआई गुलाबी गीली आँखों में सायास मुस्काकर पुष्पा ने मेरी बढ़ी हुई हथेली पर
अपनी नम हथेली टिका दी।
उसकी नम हथेली को चूमकर मैंने सदैव उसके साथ अपने होने के मनोभाव पर मुहर
लगाई।
घिरे अँधेरे से लैंपपोस्ट की मलिन रोशनी को मैंने भिड़ते हुए महसूस किया। हथेली
भीतरी थर्राहट से उद्विग्न थी। सँभलने में मासूम को वक्त लगेगा।
अँधेरा घिरते ही बस्ती भुतही-सी हो उठती है। रिक्शा कर पहले पुष्पा को उसके घर
उतारना होगा। जताना होगा माँ को कि उनकी बेटी देरी से लौटी है तो वह उनके ही
साथ थी।
समय हाथ से छिटका नहीं है। घर की आँच से छिटके बच्चों को बाहर की चकाचौंध
आसानी से अपनी गिरफ्त में ले बहकने को बाध्य कर देती है कि नासमझ, भला-बुरा
सोचने के काबिल ही नहीं रहते। किसी रोज पुष्पा के पिताजी से भी घर पर मिलकर
इत्मीनान से बात करनी होगी, सतीश के पृष्ठ खोले बगैर। पुष्पा ने बताया था पिता
रोज रात घर पीकर लौटते हैं।
हफ्तों बाद अचानक एक रोज पुष्पा का फोन आया था। फोन समीना ने उठाया था। बताया
मुझे कि पुष्पा की टीचरें उसे कॉपी में नोट्स स्याही वाले पेन से नहीं जेल पेन
से लिखने के लिए कहती हैं। जेल पेन से न लिखने पर कह रही हैं कि एक नंबर कट
जाएगा। जेल पेन पाँच रुपये का एक आता है और आठ-दस पन्नों से ज्यादा नहीं लिख
सकते उससे। मैं प्राचार्या जी से कहकर उसे स्याही वाले पेन से नोट लिखने की
अनुमति दिलवा दूँ विशेष रूप से।
प्रतिक्रिया के लिए समीना ने मेरी ओर देखा।
"ऐसा करो, वेदवती के हाथों तुम उसके लिए एक दर्जन जेल पेन कल ही भिजवा दो।
वेदवती से कह देना। पुष्पा से कह दे कि जैसे ही जेल पेन खतम होने को आएँ, फोन
कर दे तुम्हें।"
सतीश के पृष्ठ अपने-आप ही खुल गए।
गाड़ी बेसब्र हो रही है पटना पहुँचने के लिए। धड़, धड़, धड़, धड़।
गति अंधड़ में परिवर्तित होती है तो मन तिनका हो आता है। घबराकर मैं बर्थ पर
उठकर बैठ जाती हूँ और साइड लैंप जलाकर खिड़की का पर्दा खोल लेती हूँ।
अंदेशा नहीं था सतीश के दुस्साहस का। मामूली से डिलीवरी बाय की इतनी हिम्मत?
पुष्पा का गंदुमी गोल सलोना चेहरा - उफ्दृ--देखूंगी तो किस हालत में पाऊँगी
बच्ची को। सीने में गौरैया-सी आ दुबकने वाली। माँ न बन पाने के लिए अभिशप्त
मेरी छाती उसके सीने से जुड़ते ही लबालब तलैया-सी उतरा आती। जब भी मेरे मित्र
मुझे शादी न करने का कटाक्षपूर्ण उलाहना देते, मैं हँसते हुए उनकी चुटकी लेने
पर उतर आती। भई, मैं तो बिना भाँवरे डलवाए लगभग डेढ़ सौ बेटियों की माँ हूँ और
पुष्पा उन सभी में से मेरी सर्वाधिक लाड़ली बिटिया है। सीने पर हाथ रखकर जरा
वे अपने दिल से पूछें, हैं वे मुझसे सौभाग्यशाली।
धड़ाक धड़ - धड़ाक धड़, पटरियाँ चीखती हुईं एक-दूसरे को काट रही हैं।
ट्रेन की यात्रा अब खलने लगी है मुझे। रह-रहकर पटरियों का चीखना बरदाश्त बाहर
हो उठता है। कोशिश करती हूँ कि ट्रेन की यात्रा से बचूँ लेकिन कुछेक
कार्यक्रमों के सीमित बजट का रोना-धोना मजबूरी में धकेल देता है। डिब्बे में
उमस पैदा हो रही है, ओढ़े हुए कंबलों की हीक से भरी हुई, उनके धुले हुए होने के
दावों के बावजूद। वैसे भी लालू प्रसाद यादव के रेल मंत्री होने के चलते रेल
व्यवस्था में किसी चमत्कारी सुधार की गुंजाइश कुल्हड़ों में उपलब्ध होनेवाली
सोंधी गर्म चाय तक ही संभव हो सकती है। कनपटियाँ नम हो रही हैं। दूसरों के
द्वारा पूछे गए सवाल मुझे निर्भीक बनाते हैं किंतु खुद से पूछे गए खुद के सवाल
भयभीत करते हैं। कपड़े खींचते हुए।
पुष्पा के साथ हुई अनपेक्षित क्रूरता इस बात का प्रमाण है कि वह बच्ची मुझसे
किए गए वादे पर दृढ़ता से कायम रही किंतु शायद मैंने उसके साथ होने के उसके
भरोसे को तोड़ दिया है।
अपनी आदत से परिचित हूँ। तनाव से बचने के लिए मैं किसी भी प्रकार की हड़बड़ाहट
में दाखिल होने से बचती हूँ। टैक्सी भी समय की अच्छी-खासी गुंजाइश रखते हुए
बुक करती हूँ। इत्मीनान से स्टेशन पहुँच एच. व्हीलर के सामने खड़े हो ताजी
पत्र-पत्रिकाओं के अंक निरखना मेरा प्यारा शगल है। चाहती तो दूसरी टैक्सी
मँगवाकर लाल बहादुर शास्त्री अस्पताल में पुष्पा को देखते हुए जा सकती थी।
शायद - यह सच है कि इधर अखबारों में छपने वाली अपनी तसवीरें मुझे अच्छी लगने
लगी हैं। कुलसुम का उनकी कतरनों को एलबम में क्रमवार ढंग से सँजोना भी।
हालाँकि ऊपरी तौर पर मैं कुलसुम को झिड़कती रहती हूँ कि उसका यह बचपना मुझे
निहायत बचकाना लगता है। अखबारों को तो मैं समाचारों से अवगत होने के लिए
मँगवाती हूँ। अपनी तसवीरें देखने के लिए नहीं।
दिल्ली के अखबारों के स्थानीय पृष्ठों पर क्या आज सुबह पुष्पा भी समाचार के
रूप में मौजूद होगी!
डिब्बे में जन्मी सुगबुग चेताती है पटना नजदीक आ रहा है। कुछ सवारियाँ कंबलों
के साथ आँखों को घेरे नींद की खुमारी को भी झटक रही हैं।
घड़ी पर नजर दौड़ाती हूँ, भोर के साढ़े पाँच बज रहे हैं। खिड़कियों के बाहर पौ फट
रही है।
पर्स खोलकर भीतर रखे हुए छोटे से पाउच में सहेजे हुए क्रेडिट कार्ड को छूती
हूँ।
विद्यापीठ के उप प्रधानाचार्य पांडेय जी की सराय से संभवतः पटना स्टेशन मेरी
अगवानी के लिए पहुँच चुके होंगे या पहुँच रहे होंगे।
उन्हें निराश जरूर करूँगी लेकिन कहना होगा ही कि पांडेय जी, मेरे लिए
विद्यापीठ के वार्षिक उत्सव में सम्मिलित हो पाना संभव नहीं हो पाएगा। स्टेशन
से सीधा एयरपोर्ट रवाना होना होगा मुझे। झूठ बोलना पड़ेगा कि सुबह दिल्ली से
मोबाइल पर मेरी संस्था की सचिव समीना का फोन आया है। मेरी आठवीं कक्षा की
विद्यार्थिनी बच्ची के मुँह पर किसी अज्ञात व्यक्ति ने तेजाब फेंक दिया है।
फोन से याद आया। समीना ने कहा था कि पुष्पा को लेकर वेदवती ने यदि कोई अन्य
खबर दी तो मैं आपको एस.एम.एस. पर सूचना दे दूँगी।
मोबाइल पर मैं समीना का एस.एम.एस. खोजती हूँ -
उसका कोई एस.एम.एस. नहीं आया। दिल में खटका हुआ। कोई बुरी सूचना तो नहीं है?
तभी एक अन्य एस.एम.एस. पर निगाह अटक गई। महामहिम सिंहजी के सलाहकार वरिष्ठ
आई.एस. अधिकारी त्रिपुरारीजी जो मेरे मित्र भी हैं, उनके द्वारा भेजा गया।
महामहिम दो दिन पूर्व सिक्किम में छुट्टियाँ बिताकर सपरिवार राजभवन लौटे हैं।
आपने जिस 'अखिल भारतीय स्वैच्छिक महिला संगठनों' की सौ महिला प्रमुखों को लेकर
राजगीर में 15-16 अक्तूबर को दो दिवसीय वैचारिक संगोष्ठी आयोजित करने एवं
महामहिम से उसके उद्घाटन के लिए प्रस्ताव भेजा है, उन्होंने प्रस्ताव को
विचारार्थ रख लिया है। इसी संदर्भ में दिल्ली आपको एक पत्र दो दिन पूर्व भेजा
गया है। पत्र आपको दिल्ली लौटने पर मिल जाएगा। जानता हूँ इस समय आप गाड़ी में
होंगी। निजी तौर पर स्थिति से आपको अवगत कराना आवश्यक लगा। कार्यक्रम के दौरान
आपकी मुलाकात महामहिम से होगी। कार्यक्रम के संदर्भ में आप स्वयं भी उनसे
आग्रह कर लीजिएगा।
मुख्यमंत्रीजी से भी इस संबंध में चर्चा हुई है। दिलचस्पी दिखाई है उन्होंने।
उम्मीद है उनकी ओर से पूर्ण सहयोग मिलेगा। लकी सराय से लौटेंगी तो 'आम्रपाली'
में आपसे भेंट होगी।'
गाड़ी रेंग रही है। अगले ही पल उसने हौले से प्लेटफार्म को छू लिया। मोबाइल
पर्स में सरका क्रेडिट कार्ड को पर्स के भीतर छूकर उसके जगह पर सुरक्षित होने
की तस्दीक की मैंने।
अफरा-तफरी सी मची हुई है डिब्बे में। भगदड़ में शामिल होने की जरूरत नहीं मुझे।
न मैं पांडेय जी को पहचानती हूँ, न पांडेय जी मुझे। टिकट उन्होंने ही बुक
करवाकर भेजा है। डिब्बा और बर्थ की जानकारी है उन्हें। "आप अपनी जगह पर ही
बैठी रहिएगा मैम। वहीं पर आकर ले लूँगा आपको।" फोन पर कहा था उन्होंने।
झुककर बर्थ के नीचे से मैं अपना सूटकेस खींचकर सामने खड़ा कर लेती हूँ। पानी की
बोतलों को पिचका देती हूँ।
लपकते हुए डिब्बे में दाखिल हुए और मुझे छोड़ आगे बढ़ गए दो-तीन सौम्य से खिचड़ी
बालों वाले व्यक्तियों ने पांडेय जी होने का भ्रम दिया।
लोगों को घूरने की असुविधा से स्वयं को बचाने के लिए बेवजह मैं ऊपरी बर्थ वाले
सहयात्री के द्वारा साइड टेबिल पर छोड़ दिए गए इंडिया टुडे का अंक उठाकर उसे
उलटने-पलटने की व्यस्तता ओढ़ लेती हूँ।
"कैसी रही आपकी यात्रा अनुपमाजी?"
"पांडेय जी हैं?"
"जी मैडम, यह आपका ही सूटकेस है न! और कोई सामान?"
"नहीं।" उठकर मैं पांडेय जी के पीछे हो लेती हूँ।
"रास्ते में कोई तकलीफ तो नहीं हुई।"
"गाड़ी आरामदायक है।" बेचौनी की बात होंठों पर आकर ठिठक गई।
एक साफ-सुथरे धक्का-मुक्की से रहित कोने में मुझे खड़ाकर पार्किंग से गाड़ी और
ड्राइवर को लेने चले गए। अनुमानित चेहरों से सर्वथा अलग युवा उप-प्रधानाचार्य।
गाड़ी में सामान रख दिया गया। पांडेय जी पीछे मेरे साथ ही बैठ गए।
''चाय यहीं कहीं पीजिएगा या बीच रास्ते में किसी बढ़िया से रेस्टोरेंट में।
जैसा आप कहें मैम।''
"शी इज नॉट ओनली योर केस फाइल - "
यह किसकी आवाज है। मैं अपने अगल-बगल हैरान-सी देखती हूँ। मेरे निकट पांडेय जी
शालीनतावश सिकुड़े हुए से बैठे हुए हैं मेरे जवाब की प्रतीक्षा में।
चाय की तलब लग रही है जरूर मगर रास्ते में किसी बढ़िया से रेस्टोरेंट में बैठकर
पिएँगे - '
मैं पांडेय जी से कहती हूँ लेकिन आपको बता दूँ, पांडेय जी ने मेरी आवाज
टेलीफोन पर ही सुनी है। वे नहीं पहचान पाएँगे कि यह आवाज मेरी नहीं है।
किसी जोंक को आपने कभी बोलते हुए देखा है!